Monday, July 6, 2009

संदीपची नवीन उर्दू गझल - जुबाँ तो डरती है कहने से



जुबाँ तो डरती है कहने से

पर दिल जालीम कहता है

उसके दिल में मेरी जगह पर

और ही कोई रहता है ॥ धृ ॥

बात तो करता है वोह अब भी

बात कहाँ पर बनती है

आदत से मैं सुनती हूँ

वोह आदत से जो कहता है ॥ १ ॥

दिल-ओ-जेहन में उसके जाने

क्या कुछ चलता रहता है

बात बधाई की होती है

और वो आहें भरता है ॥ २ ॥

रात को वोह छुपकेसे उठकर

छतपर तारे गिनता है

सेज पे मेरी इक टुटासा

सपना सोया रहता है ॥ ३ ॥

दिलका क्या है,

भर जाये या उठ जाये,

एक ही बात...

जाने या अनजाने

शिशा टूटता है तो टूटता है ॥ ४ ॥



- संदीप खरे.

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